संस्कृत श्लोक अनुवाद सहित | Sanskrit Shlok

हेलो दोस्तों आप सभी का स्वागत है हमारे वेबसाइट में, आज के आर्टिकल में हम आपके लिए संस्कृत के कुछ महत्वपूर्ण श्लोक लेकर आए हैं, संस्कृत भाषा हमारी सबसे प्राचीन भाषा में से एक है, तथा संस्कृत भाषा का हमारी भारतीय संस्कृति में बहुत महत्व है, हमारे आज के आर्टिकल के माध्यम से आप सभी विद्यार्थी श्लोक के बारे में जानकारियां प्राप्त कर सकते हैं जो सभी विद्यार्थियों को दसवीं कक्षा तक पढ़ाया जाता है तथा श्लोक परीक्षाओं की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण होता है।

विद्यार्थियों के साथ साथ हमारे संस्कृत के श्लोक को पढ़कर अन्य व्यक्ति भी ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, हम हमारे आर्टिकल में संस्कृत श्लोक के अनुवाद भी बताएंगे जिससे आप सभी को श्लोक को समझने में आसानी हो और आप सभी श्लोक को पढ़कर आसानी से समझ सके।

संस्कृत श्लोक अनुवाद सहित Sanskrit Shlok
संस्कृत श्लोक अनुवाद सहित Sanskrit Shlok

संस्कृत श्लोक एवं उनके अर्थ:-

संस्कृत श्लोक में ऋषि-मुनियों ने कई ज्ञान की बातें बताई हैं जिसे पढ़कर हम सभी उन सभी श्लोक में लिखी गई बातों के बारे में ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।

1. गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु: गुरुर देवो महेश्वर:। गुरु: साक्षात् परम ब्रम्ह तस्मै श्री गुरुवे नमः।।

अर्थ:-गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरुदेव है। गुरु महेश्वर (शिव) है, गुरु साक्षात पर ब्रह्म है, उस गुरु को नमस्कार है।

2. सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत्।।

अर्थ:-सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों, सभी का कल्याण हो, कोई भी दुख का भागी न हो।

3. शैले शैले न माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे गजे। साधवो न हि सर्वत्र, चन्दनं न वने वने।।

अर्थ:-प्रत्येक पर्वत में मणि नहीं होती है। सज्जन नहीं होते हैं, और प्रत्येक वन में चंदन (वृक्ष) नहीं होते हैं।

4. आलस्य कुतो विद्या, अविद्यस्य कुतो धनम्। अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुत: सुखम्।

अर्थ:-आलसी को विद्या कहां? विद्याहीन को धन कहां? धनहीन को मित्र कहां? और मित्रहीन को सुख कहां?

अर्थात् आलसी व्यक्ति को विद्या प्राप्त नहीं होती है, विद्याहीन को धन की प्राप्ति नहीं होती है, धनहीन को मित्र की प्राप्ति नहीं होती है और मित्रहीन को सुख की प्राप्ति नहीं होती है।

5.माता गुरुतरा भूमे: खादप्युच्चतर: पिता।मन: शीघ्रतरं वाताच्चिन्ता बहुतरी तृणात्।।

अर्थ:-माता भूमि से भी बढ़कर है, पिता का स्थान आसमान से भी ऊंचा है, मन वायु से भी तेज है एवं तृण से भी अधिकता में चिंता (के प्रभाव का प्रसार) है।

6.नास्ति विद्या समं चक्षु: नास्तिक सत्यमपं तप:। नास्ति रागसमं दु:खं नास्ति त्यागसमं सुखम्।

अर्थ:-विद्या के समान नेत्र नहीं, सत्य के समान तप नहीं, लोभ के समान दुख नहीं और त्याग के समान सुख नहीं होता है।

7.दिनान्ते पिबेत् दुग्धम्,निशान्ते च पिबेत् पय:। भोजनान्ते पिबेत् तक्रम् किं वैद्यस्य प्रयो जनम्।।

अर्थ:-दिवस के अंत (शाम) में दूध पीना चाहिए, रात्रि के अंत (प्राय:) में जल पीना चाहिए और भोजन के बाद छाछ पीना चाहिए। फिर वैद्य का क्या काम? ऐसा करने पर वैद्य की आवश्यकता नहीं होती है।

8.अज्ञानेनावृत्तो लोकस्तमसा न प्रकाशते। लोभात्यजति मित्राणि सड्गात्स्वर्गं न गच्छति।।

अर्थ:-अज्ञान से संसार व्याप्त है तथा अंधकार से प्रकाशित नहीं होता है। लोभ के कारण मनुष्य मित्रों को छोड़ता है और बुरी संगति से स्वर्ग नहीं जाता है।

9.सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सहवीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।

अर्थ:-हम दोनों की एक साथ रक्षा हो, हम दोनों साथ-साथ भोजन करें, बल पराक्रम (का प्रदर्शन) करें, पठन पाठन तेजस्वी हो, हम दोनों कभी आपस में द्वेष/ईष्या न करें।

10.अयं स काल: सम्प्राप्त: प्रियो यस्ते प्रियंवद। अलंकृत इवाभाति येन संवत्सर: शुभ:।।

अर्थ:-हे मधुर भाषी लक्ष्मण! जो तुम्हें प्रिय लगता है, अब वह समय आ गया है; जिसके कारण शुभ संवत्सर (वर्ष) सजे हुए की भांति सुशोभित हो रहा है।

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संस्कृत श्लोक एवं उनके अर्थ:- 2

11. नीहार: पुरुषो लोक:, पृथिवी सस्यशालिनी। जलान्यनुपभोग्यानि,सुभगो हव्यवाहन:।।

अर्थ:- शीत से संसार अकड़ सा गया है, पृथ्वी धान्य से परिपूर्ण (हरी-भरी) हो गई है। जल का उपभोग अरुचिकर (अयोग्य) एवं अग्नि का उपयोग अच्छा लगने लगा है।

12.वायुनां शोधका वृक्षा रोगाणामपहारका:। तस्माद् रोपणमेतेषां रक्षणं च हितावहम्।।

अर्थ:- वृक्ष वायु को शुद्ध करने वाले तथा रोगों को दूर भगाने वाले होते हैं, इसलिए उनको (वृक्षों को) लगाना और उनकी रक्षा करना हितकारी है।

13.तपो बलं तपसानां ब्रह्मविदां बलम्। हिंसा बलमसाधूनां क्षमा गुणवतां बलम्।।

अर्थ:- तपस्वियों का बल तप है, ब्रह्म ज्ञानियों का बल ब्रह्म है। दुष्टों का बल हिंसा है, गुणवानों का बल क्षमा है।

14.निनादय नवीनामये वाणि वीणाम्,मृदुंगाय गीतिं ललित नीति लीनाम्।

अर्थ:- हे वाणि! नवीन वीणा को बचाओ, सुंदर नीतियों से परिपूर्ण गीत का मधुर गान करो।

15. श्रुतेन श्रोत्रियों भवति तपसा विन्दते महत्। धृत्याव्दितीयवान्भवतिराजन् बुध्दिमान्वृध्दसेवया ।।

अर्थ:- मनुष्य वेद ज्ञान से वेदों का विद्वान होता है, तपस्या से उदारता को प्राप्त होता है। धैर्य से अद्वितीय एवं वृद्धों(बड़ों) की सेवा करने से बुद्धिमान होता है।

16.बुध्दे: फलं तत्वविचारणा च देहस्य सारं व्रतधारणं च । अर्थस्य सारं किल पात्रदानं,फलं प्रीतिकरं नराणाम्।।

अर्थ:-मनुष्य की बुद्धि का फल (सार्थकता) तत्वों का विचार है, शरीर का व्रत धारण करने से धर्म का सुपात्र को दान से तथा वचनों का फल प्रिय भाषण है।

17.लतानां नितान्तं सुमं शान्तिशीलम् चलेदुच्छलेत्कान्तसलिलं सलीलम्,तवाकण्र्य वीणामदीनां नदीनाम् निनादय।।

अर्थ:-तुम्हारी ओजस्विनी वीणा को सुनकर लताओं के एकदम शांत पड़े फूल झूम उठे और नदियों का स्वच्छ जल क्रीडा करता हुआ उछलने लगा। (हे सरस्वती! नयी वीणा को)बजाओ।

18. परिवर्तनि संसारे मृत: को वा न जायते। से जातो येन जातेन याति वंश: समुन्नतिम्।।

अर्थ:-इस परिवर्तनशील संसार में कौन नहीं मरता या कौन जन्म नहीं लेता, जिसके जन्म से वंश उन्नति करता है, उसका जन्म लेना ही सफल है।

19.नास्ति विद्या समं चक्षु,नास्ति सत्य समं तप:। नास्ति राग समं दुखं ,नास्ति त्याग समं सुखं।।

अर्थ:- विद्या के समान आंख नहीं है, सत्य के समान तपस्या नहीं है, आसक्ति के समान दु:ख नहीं है और त्याग के समान सुख नहीं है।

20. पठतो नास्ति मूर्खत्वं अपनो नास्ति पातकम्। मौनिन: कलहो नास्ति न भयं चास्ति जाग्रत:।।

अर्थ:- पढ़ने वाले को मूर्खत्व नहीं आता, जपनेवाले को पातक नहीं लगता; मौन रहनेवाले का झगड़ा नहीं होता, और जागृत रहनेवाले को भय नहीं होता।

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संस्कृत श्लोक एवं उनके अर्थ:- 3

21.अहिंसा परमोधर्म:, धर्म हिंसा तथैव च:।

अर्थ:-अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है, परंतु धर्म की रक्षा के लिए हिंसा भी वैसा ही धर्म है।

22.काक चेष्टा,बको ध्यानं ,स्वान निद्रा तथैव च । अल्पकालीन, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणं।।

अर्थ:-हर विद्यार्थी में हमेशा कौवे की तरह कुछ नया सीखने की चेष्टा, एक बगुले की तरह एकाग्रता और केंद्रीय ध्यान एक आहत में खुलने वाली कुत्ते के समान नींद, गृहत्यागी और आवश्यकता के अनुसार खाने वाला अर्थात अल्पाहारी जैसे 5 लक्षण विद्यार्थी के होते हैं।

23. यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

अर्थ:- जब जब धर्म को हानि होती है, जब-जब अधर्म में वृद्धि होती है, तब तब तत्पुरुषों के उद्धार के लिए, अधर्मियों के विनाश के लिए और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए मैं ही जन्म लेता हूं, यह प्रत्येक युग में होता आया है और आगे भी ऐसा ही होगा।

24. असतो मा सद्गमय ।। तमसो मा ज्योतिर्गमय ।। मृत्योर्मामृतम गमय।।

अर्थ:- हमको असत्य से सत्य की ओर ले चले, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलें, और मृत से अमृता की ओर ले चले।

25. काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्। व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ।।

अर्थ:- बुद्धिमान पुरुषों का समय काव्यों तथा शास्त्रों के अध्ययन आदि अच्छे कार्य में व्यतीत होता है, और मूर्खों का समय दूव्र्यसनों , निद्रा (सोना), लड़ाई झगड़े में बीतता है।

अर्थात जो पढ़े-लिखे बुद्धिमान होते हैं उनका समय काव्य, शास्त्र आदि के पठन-पाठन, मनन चिंतन, लेखन आदि अच्छे कार्य में बीतता है, और मूर्ख लोगों का समय बुरी आदतों में या रात दिन सोने में या दूसरों के साथ लड़ाई झगड़े में उनका समय बीतता है।

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